नीतिशतक में कवि भर्तृहरि का मानवजीवन के लिए उचित संदेश

Authors

  • डॉ.रघुभाई कानजीभाई पटेल आसीस्टन्ट प्रोफेसर , संस्कृत विभाग, धी.के.एन.एस.बी.एल.आर्ट्स एन्ड कॉमर्स महाविद्यालय, खेरालु. जि.मेहसाना. गुजरात

DOI:

https://doi.org/10.47413/vidya.v3i1.448

Keywords:

नीति शब्द का अर्थ - विद्या का गौरव- सदाचार – दुर्जन निंदा - मूर्खों का उपहास - अटल कर्म - पुरुषार्थ - मित्रता - धन का महत्व।

Abstract

संस्कृत साहित्य में मानव जीवन को आलोकित करने वाली लोककथाओं-नैतिक कथाओं का प्रादुर्भाव हुआ है। शतककाव्य की परंपरा में कवि भर्तृहरि की नीतिशतक, शृंगारशतक, वैराग्यशतक आदि रचनाएँ मनुष्य के व्यावहारिक जीवन को छूने वाले विषय प्रस्तुत करती हैं। नीतिशतक में कवि भर्तृहरि ने एक ओर सज्जनों की प्रशंसा की है तो दूसरी ओर दुष्टों की निंदा की है। यहाँ कवि ने विभिन्न दृष्टान्तों के माध्यम से ब्रह्मा को भी समझाने में असमर्थ दिखाकर मूर्खों का उपहास किया है। नीतिशतक में सद्गुणों और सज्जनों की महिमा है। और विद्या धन को सभी धनों में सर्वोत्तम कहा गया है। यहां दूध और पानी तथा शाम और सुबह की परछाइयों के उदाहरणों के माध्यम से सज्जनों और दुर्जनों  की दोस्ती के बीच के अंतर को दर्शाया गया है। साथ ही यहां कर्म की गति, शुद्ध चरित्र, कठोर पुरुषार्थ , शक्तिशाली प्रारब्ध, धन का महत्व, सत्संगति, बुराइयों से भरी राजनीति आदि पर भी प्रकाश डाला गया है। यहाँ कवि ने विभिन्न व्यावहारिक उदाहरण देकर मानव जीवन को छूने वाली सभी बातों को समझाने का प्रयास किया है।

References

संस्कृत साहित्य में नीतिकथा का उद्गम एवं विकास

नीतिशतकम् – श्लोक-१६

नीतिशतकम् – श्लोक-२३

नीतिशतकम् – श्लोक-६७

नीतिशतकम् – श्लोक-१०२

नीतिशतकम् – श्लोक-४

नीतिशतकम् – श्लोक-२७

नीतिशतकम् – श्लोक-४०

नीतिशतकम् – श्लोक-८२

नीतिशतकम् – श्लोक-४९

नीतिशतकम् – श्लोक-६६

वैदिक दर्शन – आचार्य उदयवीर शास्त्री

नीतिशतकम्। - प्रा. सुरेशचंद्र.जे.दवे – सरस्वती पुस्तक भंडार, अहमदाबाद

नीतिशतकम्। - गोपाल शर्मा- हंसा प्रकाशन, जयपुर

नीतिशतकम्। - डॉ. निरंजन पाठक, पार्श्व प्रकाशन, अहमदाबाद

वैराग्यशतकम् - डॉ. अजय त्रिवेदी

शृंगारशतकम् - प्रा. विनय भट्ट

श्रीमद्भगवद्गीता – गीता प्रेस, गोरखपुर.

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Published

30-06-2024

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How to Cite

नीतिशतक में कवि भर्तृहरि का मानवजीवन के लिए उचित संदेश. (2024). VIDYA - A JOURNAL OF GUJARAT UNIVERSITY, 3(1), 169-171. https://doi.org/10.47413/vidya.v3i1.448

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